कब दिखेगी आधी आबादी की पूरी दास्तान, छोटे पर्दे पर चल रही है अधूरी कहानी
आज के टेलीविजन धारावाहिक एकता कपूर और बालाजी टेलीफिल्म के लोकप्रिय धारावाहिक क्योंकि सास भी कभी बहू थी के कथानक से आगे ही नहीं बढ़ पा रहे। धारावाहिकों में भव्य सेट पर महिलाओं का हाई वोल्टेज ड्रामा, तड़क-भड़क, बात-बात पर अतिरेक और रोमांस है। यहां सास-बहू, ननद-भाभी और बहन की नोकझोंक को संग्राम में बदल दिया जाता है। नारि न मोहे नारि के रूपा को चरितार्थ किया जा रहा है। टूटते हुए संयुक्त परिवार को द्वेष-ईर्ष्या-हिंसा से युक्त अंतर्कलह का अड्डा बना दिया गया है, जहां एक युवक की अनेक प्रेमिकाएं एक-दूसरे से द्वेष कर रही हैं। हर पत्नी ‘सौतिया डाह’ में जली जा रही है।
आधी आबादी का सच में कुमुद शर्मा अकारण नहीं लिखती हैं कि ‘धारावाहिकों के जरिये पॉपुलर संस्कृति के झांसे में दो तरह की औरतों को ईजाद किया गया है-पहली, किसी औरत के पति को छीनती हुई फैशनेबल, कामुक, उत्तेजक औरत; दूसरी,छिनते हुए पति को वश में करने की चिंता में घुली जा रही औरत। इन कार्यक्रमों को देखकर लगता है जैसे ये हिंदी औरतों को असुरक्षित करते हुए निर्देश दे रहे हों कि बस, यही है तुम्हारी भूमिका।’
स्त्रियों का सर्वाधिक समय श्रम करते हुए व्यतीत होता है। उनके समक्ष शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की चुनौतियां हैं। स्वावलंबी युवतियों की सकारात्मक छवि और उनके जीवन की मूलभूत समस्याएं समाज के सामने नहीं आ पा रहीं। सीरियलों की स्त्रियां सज-धजकर परिवार के छोटे संस्कार को भी उत्सव की तरह मना रही हैं। भोग-विलास में डूबी महिला को दिखाने के साथ गरीब, सामान्य और मध्यवर्ग की स्त्रियों के संघर्ष और समस्या को भी स्थान देना चाहिए। इससे कहानी में वैविध्य आएगा और रोचकता बढ़ेगी। पर यहां उच्च वर्ग की स्त्रियों का प्रभुत्व है, जो डिजाइनर साड़ी पहन, आभूषणों से लदकर प्रेमी-पति को पाने के लिए दिन-रात षड्यंत्र में लिप्त हैं। पति की जासूसी करना उनका एकमात्र कार्य है। पति, पुत्र और संपत्ति को अपने कब्जे में रखने के लिए वह पूरे मेकअप में रोती- बिलखती, बेचैन दिखाई जाती हैं।
धारावाहिकों के जरिये भारतीय नारी की भ्रामक व एकांगी तस्वीर परोसी जा रही है। आधी आबादी को पूरी तरह दिखाए जाने के स्थान पर मात्र नवधनिक वर्ग की महिलाओं को पेश किया जा रहा है। स्त्री जीवन पर पड़ने वाले इसके दुष्प्रभाव पर मैत्रेयी पुष्पा खुली खिड़कियां में लिखती हैं, ‘ऊबी स्त्रियों को देखकर वे औरतें क्या सोचें, जो बस में लटककर कारखाने या दफ्तर जाती हैं। दिन-भर खटकर लौटने के बाद चौका-चूल्हा देखती हैं। हाट-बाजार से आटा और नमक लाती हैं। काश! इन सीरियलों में दास-दासियों के ही चित्रण होते, तो कुछ राहत होती और आत्महत्या कर लेने जैसी जहरीली इच्छा मन में नागिन की तरह न उठती।’
टेलीविजन धारावाहिकों में संघर्षशील युवती दुर्लभ है। पशुपालन-खेतीबाड़ी, घरों में दाई व नर्स, छोटे भाइयों की देखभाल करती, परिवार के काम में हाथ बटाती, करिअर बनाने के लिए पढ़ाई करती लड़कियों की दृश्यावलियां खोजे नहीं मिलतीं। हां, ऐसी आधुनिक आकर्षक युवतियों की भरमार है, जो जीवन में शिक्षा व स्वावलंबन से अधिक प्रेम व शादी की गतिविधियों में मशगूल रहती हैं। उत्तर आधुनिक युवती भी परंपरागत भारतीय नारी की तरह पति और बेटे के लिए सारे व्रत रखती है, बड़े-बड़े धार्मिक आयोजन करती है। परिवार पर ज्यों ही कोई संकट आता है, उससे निपटने के लिए वह भगवान की शरण में चली जाती है। अतः उसकी आधुनिकता विचारों में नहीं, सिर्फ वस्त्राभूषण तक सिमटी और दिखावटी है। धार्मिक आस्था के नाम पर अंधविश्वास को दृढ़ किया जा रहा है। इससे पितृसत्तात्मक मूल्यों का संरक्षण भी हो रहा है।
स्त्री देह को लेकर निर्मित किए जा रहे मिथक घातक हैं। अच्छी दुल्हन का एकमात्र पैमाना है देखने में सुंदर होना, गोरी और छरहरी। सतही सौंदर्य के इस दुष्प्रचार से देश की बहुसंख्यक लड़कियों को शादी के समय परेशानी झेलनी पड़ती है, क्योंकि मध्य और दक्षिण भारत की गर्म जलवायु के कारण ज्यादातर लड़कियां सांवली हैं।
लंबे समय से हिंदी सिनेमा और धाराहवाहिकों में खलनायक का किरदार पुरुष निभाते रहे हैं। किंतु कुछ समय से खलनायिकाएं धारावाहिकों के माध्यम से समाज के सामने आ रही हैं, जिनकी भूमिका और रुतबा अभिनेत्री से कम नहीं। बेहद की सनकी खलनायिका के रोल में जेनिफर विंगेट को न सिर्फ नायिका से अधिक टीआरपी मिली, बल्कि उसकी बेहतरीन अदाकारी के लिए पुरस्कार भी मिले। खुबसूरत खलनायिकाओं की दिखाई जाने वाली जीवन-शैली से लेकर संवाद का जादू युवतियों के सिर चढ़कर बोलने लगा है। इन खलनायिकाओं की त्रासदी कम नहीं है। इन्हें कलाकार न मानकर खलपात्र समझा जाता है और धारावाहिकों में इनकी भूमिकाओं को इनके जीवन से जोड़कर अभद्र बर्ताव किया जाता है। इनको देखने और पसंद करने वालों की बड़ी संख्या है, तो समाज पर इसका प्रभाव भी दूरगामी होगा, जो चिंतनीय है।