” मैं हूं ” इतना तो लोग जानते हैं, किन्तु अपनी आनन्दरूपता को नहीं जानते हैं :: स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती
खबरीलाल रिपोर्ट (वृंदावन) : प्रातःकालीन सत्र में बृहदारण्यक पर चर्चा करते हुए शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती जी महाराज ने रेखांकित किया कि शास्त्र उन्ही के लिए हैं जो शरीर को आत्मा से अलग मानते हैं और इस बात का उपाय करते हैं कि शरीर के न रहने पर आत्मा को परलोक में सुख मिले, आत्मा की सद्गति हो। मन का मैल निष्काम कर्म, ईश्वरार्पण बुद्धि और परोपकार से छूटता है। ईश्वर से कोई न कोई सम्बन्ध जोड़ लेना चाहिए। इससे उपासना आसान हो जाता है। माताभाव से, पिताभाव से , पुत्रभाव से किसी भी भाव से उपासना करें, किन्तु आत्मभाव ही मुख्य और सर्वोत्तम सम्बन्ध है।
वेदांत कक्षा में पञ्चदशी पढ़ाते हुये महाराजश्री ने बताया कि वेद्य अर्थात् ज्ञेय अनेक हैं, संवित् अर्थात् ज्ञान एक है। वेद्य परिवर्तित होते रहते हैं, संवित् नहीं। वह संवित् ही आत्मा है।
प्रत्येक प्राणी का अपने आप से स्वाभाविक या अकारण प्रेम होता है। इसीलिए प्रत्येक प्राणी अपने अस्तित्व को बचाना चाहता है। अन्य से सोपाधिक या सकारण प्रेम होता है। आत्मा ही सबके लिए परम प्रेमास्पद है। आत्मा और उसके आनन्द का ज्ञान न होने के कारण ही लोग विषयों में आनन्द खोजते हैं। जिस प्रकार निकट के सरोवर में काई से ढका जल न दिखने से कोई दूर की मृगमरीचिका की ओर जल की खोज में जाये उसी प्रकार अज्ञान से ढके होने के कारण आत्मानन्द का लाभ न लेकर लोग विषयों की ओर भागते हैं।
“मैं आनन्दरूप हूं”, यह नहीं जानते। इसका कारण अनादि अविद्या है। वह अविद्या अनादि है किन्तु अनन्त नहीं। ज्ञान से उसका अन्त हो जाता है। उसके अन्त होने पर जीव अपने स्वरूपानन्द में स्थित हो जाता है। माया और अविद्या में अन्तर – ईश्वर का सम्बन्ध माया से है, जीव का अविद्या से। माया ईश्वर के वश में है, जबकि जीव अविद्या के वश में। अविद्या के कारण मनुष्य शरीर को अपना स्वरूप और शरीर के सम्बन्धियों को “मेरा” कहता है। सृष्टि की रचना ईश्वर की आज्ञा से जीवों के भोग के लिए होती है।