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कैंट बोर्ड खत्म निर्णय पर विंग कमांडर के इस लेख को अवश्य पढ़ना चाहिए

जन केसरी। कर्नाटक विधानसभा चुनाव, समलैंगिक विवाह, पाकिस्तान की डांवाडोल स्थिति और दिल्ली के मुख्यमंत्री आवास जैसे समाचारों के शोर-शराबे में फौजी छावनियों के स्वरूप में मूलभूत परिवर्तन की महत्वपूर्ण खबर दबकर रह गई। इस संबंध में विगत 27 अप्रैल को जारी केंद्र सरकार की अधिसूचना आम नागरिकों और सैन्य कर्मचारियों की विशाल संख्या को प्रभावित करेगी। देश में कुल 62 सैन्य छावनियां हैं। इन छावनियों के नियंत्रण में एक लाख इकसठ हजार हेक्टेयर भूमि है।

फौजी छावनियों की स्थापना 1757 के पलासी युद्ध के बाद कलकत्ता के निकट बैरकपुर छावनी से शुरू हुई थी। असल में इसके पीछे मूल सोच ईस्ट इंडिया कंपनी के हिंदुस्तानी सिपाहियों को आम जनता से दूर रखने की थी, ताकि उनकी स्वामिभक्ति बरकरार रहे। इसके अलावा सेना को विभिन्न संक्रामक बीमारियों से बचाने के लिए भी शहर से बाहर बसाना जरूरी था। सैन्य आबादी वाले क्षेत्र को सीधे नियंत्रण में रखकर साफ-सफाई और रख-रखाव की बेहतर व्यवस्था और फौजी योजना एवं तैयारी को जासूसी से बचाए रखना भी महत्वपूर्ण उद्देश्य थे। हालांकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी छह नई फौजी छावनियां स्थापित की गईं, जिनमें से नवीनतम छावनी अजमेर के पास नसीराबाद में है।

आजादी के पहले फौजी छावनियों का प्रबंधन कैंटोनमेंट बोर्ड के जरिये स्थानीय फौजी कमांडर के हाथों में रहता था। 1889 में बने कैंटोनमेंट बोर्ड ऐक्ट को 2006 में संशोधित करके लोकतांत्रिक भारत ने इन्हें जनतांत्रिक ढंग से चुने जाने का रास्ता अपनाया, लेकिन इन पर स्थानीय फौजी कमांडर का नियंत्रण बनाए रखा गया। इससे न तो कैंटोनमेंट क्षेत्र में रहने वाले नागरिक संतुष्ट हुए और न ही सैन्य व्यवस्था इस अतिरिक्त जिम्मेदारी को पूरी तरह लेने के लिए उत्सुक थी।

इस बीच शहरों की सीमाएं अद्भुत गति से फैलती गईं और छावनियां वृहद् शहरों के बीच द्वीप जैसी बनकर रह गईं। छावनियों के नजदीकी शहरों में आवास की भारी कमी से जूझते आम नागरिक कैंटोनमेंट क्षेत्र में सैन्य अधिकारियों के बड़े-बड़े बंगले देखकर रश्क करने लगे और सुरक्षा के दृष्टिकोण से नागरिकों के आवागमन पर लगाए गए प्रतिबंध इन छावनियों के प्रति रोष जगाने लगे। उधर भूसंपत्ति का बाजार मूल्य आकाश की उंचाइयां छूने लगा, तो इस बहुमूल्य संपदा के ऊपर सेना का कब्जा ईर्ष्या और रोष का कारण बन गया।

अग्रिम क्षेत्रों में नियुक्त सैनिकों के परिवारों को इन छावनियों में केवल सुरक्षा ही नहीं, बल्कि राशन पानी, शिक्षा, सैन्य कैंटीन, उपचार एवं अस्पताल आदि की तमाम सुविधाएं भी मिलती हैं। इसलिए सरकार की ओर से फौजी छावनियों के रास्ते को आम लोगों के लिए खोलने के फैसले का सेना में गर्मजोशी से स्वागत नहीं हुआ, भले ही हमारी अनुशासित सेना ने इस आदेश का तुरंत पालन किया।

लेकिन धीरे-धीरे सेना में भी एक नई सोच आई, जिसके अनुसार हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में छावनी क्षेत्र उपनिवेशवादी परंपरा के वाहक थे। व्यावहारिक स्तर पर भी महसूस किया जाने लगा कि सेना का स्थानीय कमांडर कैंटोनमेंट बोर्ड के अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी से मुक्त होकर सैन्य प्रबंधन और सामरिक तैयारी पर पूरा ध्यान दे सकेगा। आज सेना को साज-ओ-सामान, आधुनिकतम विमानों, युद्धपोतों एवं अन्य संसाधनों की खरीद के लिए खरबों रुपये की जरूरत है, सैनिकों के वेतन और पेंशन का बोझ ही आवंटित धनराशि का बड़ा हिस्सा खपा लेता है।

ऐसे में, छावनियों के रख-रखाव का आर्थिक बोझ सेना को न उठाना पड़े, तो अच्छा होगा। एक अनुमान के अनुसार, छावनियों के विघटन के बाद इस मद में सेना के लगभग चार सौ सत्तर करोड़ रुपये बचेंगे, क्योंकि सेना केवल छावनियों के अंदर बने मिलिटरी स्टेशन के प्रबंधन के लिए जिम्मेदार होगी। कुल मिलाकर, छावनी बोर्डों के विघटन का फैसला लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक प्रगतिशील कदम ही है।
-लेखक सेवानिवृत्त विंग कमांडर हैं।

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