बिहार

जब अर्जुन के प्राणों के लिए भगवान कृष्ण ने किया एेसा छल

महाभारत युद्ध के समय शक्तिशाली योद्धा कर्ण माना जाता था। भगवान कृष्ण को इस बात का पता था कि कर्ण के पास जब तक कवच और कुंडल है, तब तक उसे कोई नहीं मार सकता। उसको काबू में करने कि लिए श्री कृष्ण भी चिंता में थे और अर्जुन की सुरक्षा को लेकर भी वे चिंतित थे।

तब भगवान और देवराज इन्द्र ने मिलकर उपाय सोचा, जिससे कि इन्द्र एक ब्राह्मण के वेश में कर्ण के द्वार पहुंचे जहां कर्ण सब को दान में कुछ न कुछ दें रहा था। जब देवराज का नंबर आया तो दानी कर्ण ने पूछा- “विप्रवर, आज्ञा कीजिए! किस वस्तु की अभिलाषा लेकर आए हैं?”

विप्र बने इन्द्र ने कहा, “हे महाराज! मैं बहुत दूर से आपकी प्रसिद्धि सुनकर आया हूं। कहते हैं कि आप जैसा दानी तो इस धरा पर दूसरा कोई नहीं है। तो मुझे आशा ही नहीं विश्‍वास है कि मेरी इच्छित वस्तु तो मुझे अवश्य आप देंगे ही।‍ फिर भी मन में कोई शंका न रहे इसलिए आप संकल्प कर लें तब ही मैं आपसे मांगूंगा अन्यथा आप कहें तो में खाली हाथ चला जाता हूं?”

कर्ण ने जल हाथ में लेकर प्रण ले लिया। उसके बाद इन्द्र ने कहा, “राजन! आपके शरीर के कवच और कुंडल हमें दानस्वरूप चाहिए।”

दानवीर कर्ण ने कुछ देर सोचा और इन्द्र की आंखों में झांका, लेकिन बिना देर लगाए उसने कवच और कुंडल अपने शरीर से खंजर की सहायता से अलग किए और ब्राह्मण को सौंप दिए। इन्द्र ने तुंरत वहां से दौड़ ही लगा दी और दूर खड़े रथ पर सवार होकर भाग गए। इसलिए क‍ि कहीं उनका राज ‍खुलने के बाद कर्ण बदल न जाए। कुछ मील जाकर इन्द्र का रथ नीचे उतरकर भूमि में धंस गया। तभी आकाशवाणी हुई, ‘देवराज इन्द्र, तुमने बड़ा पाप किया है। अपने पुत्र अर्जुन की जान बचाने के लिए तूने छलपूर्वक कर्ण की जान खतरे में डाल दी है। अब यह रथ यहीं धंसा रहेगा और तू भी यहीं धंस जाएगा।’

तब इन्द्र ने आकाशवाणी से पूछा, इससे बचने का उपाय क्या है? तब आकाशवाणी ने कहा- अब तुम्हें दान दी गई वस्तु के बदले में बराबरी की कोई वस्तु देना होगी। इन्द्र क्या करते, उन्होंने यह मंजूर कर लिया। तब वे फिर से कर्ण के पास गए। लेकिन इस बार ब्राह्मण के वेश में नहीं। कर्ण ने उन्हें आता देखकर कहा- देवराज आदेश करिए और क्या चाहिए?

इन्द्र ने कहा, “हे दानवीर कर्ण अब मैं याचक नहीं हूं बल्कि आपको कुछ देना चाहता हूं। कवच-कुंडल को छोड़कर मांग लीजिए, आपको जो कुछ भी मांगना हो।”

कर्ण ने कहा- “देवराज, मैंने आज तक कभी किसी से कुछ नही मांगा और न ही मुझे कुछ चाहिए। कर्ण सिर्फ दान देना जानता है, लेना नहीं।”

तब इन्द्र ने विनम्रतापूर्वक कहा- “महाराज कर्ण, आपको कुछ तो मांगना ही पड़ेगा अन्यथा मेरा रथ और मैं यहां से नहीं जा सकता हूं। आप कुछ मांगेंगे तो मुझ पर बड़ी कृपा होगी। आप जो भी मांगेंगे, मैं देने को तैयार हूं।”

किंतु कर्ण तब भी नहीं माना।

तब लाचार इन्द्र ने कहा- “मैं यह वज्ररूपी शक्ति आपको बदले में देकर जा रहा हूं। तुम इसको जिसके ऊपर भी चला दोगे, वो बच नहीं पाएगा। भले ही साक्षात काल के ऊपर ही चला देना, लेकिन इसका प्रयोग सिर्फ एक बार ही कर पाओगे।”

इसमें कर्ण की गलती नहीं मानी जा सकती क्योंकि उसके आवाज देने पर भी इन्द्र वहां नहीं रुके। इसमें कर्ण की मजबूरी थी कि उसे वज्र शक्ति को अपने पास ही रखना पड़ा।

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