आखिर क्या है रोहिंग्या मुस्लिमों का दर्द, अपने ही देश में क्यों असहाय हैं आंग सांग
एक बार फिर म्यांमार की नेता आंग सांग सू ची और यहां के रोहिंग्या मुसलमान सुर्खियों में हैं। दरअसल, संयुक्त राष्ट्र में मानवाधिकारों के निवर्तमान प्रमुख ने टिप्पणी की है कि रोहिंग्या मुसलमान के ऊपर ढाए जा रहे जुल्म को रोक पाने में सू ची विफल रही हैं। इसलिए उन्हें अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए। इस बयान के बाद अंतरराष्ट्रीय जगत में रोहिंग्या मुसलमानों की बदहाल स्थिति और उनके दमन पर एक बार फिर बहस छिड़ गर्इ है। बता दें कि पिछले साल म्यांमार की सेना पर अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ हिंसक अभियान चलाने के आरोप लगे थे और इसकी जांच संयुक्त राष्ट्र कर रहा था। ऐसे में यह सवाल उठता है कि सू ची रोहिंग्या मुसलमानों की समस्या का हल निकालने में क्यों असहाय और विफल रही हैं। क्या है इसके कारण और म्यांमार में सत्ता की हकीकत। इसके साथ ही यह भी जानेंगे की रोहिंग्या मुसलमान की समस्या की जड़ में क्या है।
इतिहास में रोहिंग्या मुस्लिम
बहुसंख्यक बौद्ध आबादी वाले म्यांमार में करीब 10 लाख रोहिंग्या मुस्लिम सदियों से रह रहे हैं। लेकिन, म्यांमार की सरकार इनको अपने देश का नागरिक नहीं मानती है। यहां की सरकार ने इन्हें नागरिकता देने से इनकार कर दिया है। दरअसल, इस समस्या की जड़ें काफी गहरी हैं। रोहिंग्या मूल के मुस्लिम 1400 के आसपास बर्मा के अराकान (राखिन) प्रांत में आकर बस गए थे। इनमें से बहुत से लोग 1430 में अराकान पर शासन करने वाले बौद्ध राजा नारामीखला के शासन में नौकर थे। इसी राजा के शासनकाल में तमाम मुस्लिम दरबारियों को प्रश्रय मिला था। समय बदलने पर इन्होंने खुद को मुगल शासकों की तरह समझना शुरू किया।
1785 में बर्मा के बौद्ध लोगों ने देश के दक्षिणी हिस्से अराकान पर कब्जा कर लिया। तब उन्होंने रोहिंग्या मुस्लिमों को या तो इलाके से बाहर खदेड़ दिया या फिर उनकी हत्या कर दी। इस अवधि में अराकान के करीब 35 हजार लोग बंगाल भाग गए जो कि तब अंग्रेजों के अधिकार क्षेत्र में था। वर्ष 1824 से लेकर 1826 तक चले एंग्लो-बर्मीज युद्ध के बाद 1826 में अराकान अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया। द्वितीव विश्व युद्ध के दौरान दक्षिण पूर्व एशिया में जापान के बढ़ते दबदबे से आतंकित अंग्रेजों ने अराकान छोड़ दिया और उनके हटते ही मुस्लिमों और बौद्ध लोगों में एक दूसरे का कत्ले आम करने की प्रतियोगिता शुरू हो गई।
इसके बाद कुछ वक्त के लिए मामला फिर शांत हो गया, लेकिन 1962 में जनरल नेविन के नेतृत्व में तख्तापलट की कार्रवाई के समय रोहिंग्या मुस्लिमों ने अराकान में एक अलग रोहिंग्या देश बनाने की मांग रखी, लेकिन तत्कालीन बर्मा की सेना ने इस मांग को बुरी तरह कुचल दिया। सैनिक शासन ने रोहिंग्या लोगों को नागरिकता देने से इनकार कर दिया और इन्हें बिना देश वाला (स्टेट लैस) बंगाली घोषित कर दिया।
संयुक्त राष्ट्र ने कई बार जाहिर की चिंता
तब से स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है। संयुक्त राष्ट्र की कई रिपोर्टों में इस पर गंभीर चिंता जाहिर की गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि रोहिंग्या दुनिया के ऐसे अल्पसंख्यक लोग हैं, जिनका लगातार सबसे अधिक दमन किया गया है। बर्मा के सैनिक शासकों ने 1982 के नागरिकता कानून के आधार पर उनसे नागरिकों के सारे अधिकार छीन लिए हैं। ये लोग सुन्नी इस्लाम को मानते हैं और बर्मा में इन पर सरकारी प्रतिबंधों के कारण ये पढ़-लिख भी नहीं पाते हैं तथा केवल बुनियादी इस्लामी तालीम हासिल कर पाते हैं।
सैन्य सत्ता ने किया दमन और शोषण
बर्मा की सैन्य सत्ता ने इनका कई बार दमन किया। इनकी बस्तियों को जलाया गया। इनकी जमीन हड़प ली गई। इनकी मस्जिदों को बर्बाद किया गया। इन्हें देश से बाहर खदेड़ दिया गया। ऐसी स्थिति में ये बांग्लादेश की सीमा में प्रवेश कर जाते हैं। थाईलैंड की सीमावर्ती क्षेत्रों में घुसते हैं या फिर सीमा पर ही शिविर लगाकर रहते हैं। 1991-92 में दमन के दौर में करीब ढाई लाख रोहिंग्या बांग्लादेश भाग गए थे। इससे पहले इनको सेना ने बंधुआ मजदूर बनाकर रखा, लोगों की हत्याएं भी की गईं, यातनाएं दी गईं और बड़ी संख्या में महिलाओं से बलात्कार किए गए।
लोकतंत्र की स्थापना के बाद भी समस्या जस की तस
उम्मीद की जा रही थी कि म्यांमार में सैन्य हुकूमत समाप्त होने के बाद इस समस्या का समाधान होगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। म्यांमार में 25 वर्ष बाद 2017 में म्यांमार में लोकतंत्र की बयार बही। यहां चुनाव हुए। इस चुनाव में नोबेल विजेता आंग सान सू ची की पार्टी नेशनल लीग फोर डेमोक्रेसी को भारी जीत हासिल हुई। हालांकि, संवैधानिक नियमों के कारण वह चुनाव जीतने के बाद भी राष्ट्रपति नहीं बन पाई थीं। सू ची स्टेट काउंसलर की भूमिका में हैं। हालांकि, कहा जाता है कि वास्तविक कमान सू ची के हाथों में ही है।
क्या है म्यांमार का संविधान
म्यांमार का संविधान कुछ इस तरह बना है कि चाहे अनचाहे यहां आंतरिक तथा वाह्य सेना का ही दबदबा है। बता दें वर्ष 2008 में म्यांमार के फौजी जनरलों ने संविधान का मसौदा तैयार किया। इसमें ये साफ तौर पर यह उल्लेख है कि देश के सभी सुरक्षा बल आर्मी के कंट्रोल में रहेंगे। यहां तक कि इस दस्तावेज़ में किसी आंतरिक संकट की स्थिति में भी पुलिस की बजाय मिलिट्री को निर्णायक अधिकार दिए गए हैं। ऐसे में साफ़ है कि बात चाहे रखाइन संकट की हो या फिर किसी अन्य आंतरिक संकट की, सरकार की हैसियत मिलिट्री से कम ही है। यही कारण है कि इस मामले में सू ची को बैकफुट पर खड़ा रहना पड़ रहा है। सू ची म्यांमार में 90 फीसद से अधिक बौद्ध जनता की आकांक्षाओं और आर्मी के दबदबे के बीच फंसी हैं।