बिहार

दुश्मन की आंख में आंख डाल कर मोर्चे पर सबसे आगे सुविधाओं में सबसे पीछे सैनिक

माला दीक्षित, नई दिल्ली। दुश्मन की आंख में आंख डाल कर 24 घंटे मोर्चे पर सबसे आगे तैनात सैनिक सुविधाओं के मामले में सबसे पीछे खड़े होते हैं। चाहें सैन्य जीवन की कठिनाइयों से जुड़े भत्ते यानी मिलेट्री सर्विस पे मिलने का मामला हो या फिर कैंटीन में सामान खरीदने का सैनिक और नान कमीशन आफीसर का नंबर सबसे पीछे आता है। और तो और कैंटीन में सामान खरीदने मे तो उनकी लाइन भी अलग लगती है। भेदभाव का यह मुद्दा कोर्ट पहुंच चुका है और सैनिकों का मुद्दा उठाने वाली संस्था वाइस आफ एक्स सर्विसमैन सोसाइटी की याचिका पर दिल्ली हाईकोर्ट ने सरकार से जवाब मांगा है।

सेना में सैनिक से लेकर अधिकारी तक को सैन्य जीवन की कठिनाइयों का भत्ता मिलता है, लेकिन दुश्मन के सामने मोर्चे पर कठिन परिस्थितियों में सबसे आगे खड़े होने वाले सैनिक और गैर कमीशन अधिकारियों (एनसीओ)व जूनियर कमीशन अधिकारी (जेसीओ) को सबसे कम भत्ता मिलता है जबकि उनकी तुलना मे ज्यादा सुविधा और सहूलियत में रहने वाले वरिष्ठ अधिकारियों व नर्सो आदि को ज्यादा भत्ता मिलता है।

सोसाइटी का कहना है कि छठे वेतन आयोग ने व्याख्या में फील्ड एरिया में जवान और आफीसर की कठिनाइयों को समान बताया है। लेकिन मिलिट्री सर्विस पे सभी को समान देने के बजाय अलग दर से मिलता है। छठे वेतन आयोग में ये भत्ता अधिकारी को 6000, नर्सिग को 4200 और जवान व जेसीओ को मात्र 2000 दिया जाता था। जब इस बारे में सरकार को ज्ञापन दिया गया तो सातवें वेतन आयोग में विचार करने का आश्वासन मिला, लेकिन सातवें वेतन आयोग में अंतर और बढ़ गया। सातवें वेतन आयोग में अधिकारियों को 15000, मिलेट्री नर्सिग को 10800 और जवान व जेसीओ को मात्र 5200 देने की संस्तुति हुई है।

कोर्ट में चल रही है अधिकारियों और सैनिकों के बीच बराबरी के हक की लड़ाई

सोसाइटी के राष्ट्रीय संयोजक बीर बहादुर सिंह का कहना है कि जवान दुर्गम इलाकों में कठिन परिस्थितियों में 24 घंटे ड्यूटी करते हैं उनकी कोई व्यवस्थित जिंदगी नहीं होती। सरकार ने जब नहीं सुना तो हाईकोर्ट में याचिका की। हाईकोर्ट ने सरकार को 8 सप्ताह में स्पीकिंग आर्डर जारी करते हुए ज्ञापन निपटाने को कहा, लेकिन सरकार ने अभी तक कुछ नहीं किया। अब हाईकोर्ट में 23 अक्टूबर को सुनवाई है।

मिलेट्री कैंटीन जिसे यूनिट रन कैंटीन भी कहा जाता है वहां भी जवानों को भेदभाव का सामना करना पड़ता है। जवानों और अधिकारियों की लाइन अलग-अलग लगती है। यहां तक कि उनके बच्चे और परिवार भी अलग लाइन में लगते हैं। हाईकोर्ट ने जुलाई के अंतिम सप्ताह में नोटिस जारी कर सरकार से छह सप्ताह में जवाब मांगा था समय सीमा करीब पूरी होने वाली है, लेकिन अभी तक सरकार की ओर से जवाब नहीं दिया गया है।

याचिका में कहा गया है कि अधिकारी हर 4 साल में 3000 सीसी क्षमता की गाड़ी खरीदने के लिए अधिकृत है जबकि जवान एक बार सर्विस के दौरान और एक बार सेवानिवृति के बाद उसके बीच में भी दस वर्ष का अंतर होना चाहिए, सिर्फ 1800 सीसी की गाड़ी ही खरीद सकता है।

सोसाइटी का कहना है कि सेवा मे रहने के दौरान ही नहीं सेवानिवृति के बाद भी जवानों के साथ भेदभाव होता है। पूर्व सैनिकों के लिए रक्षा मंत्रालय के तहत आने वाला विभाग डायरेक्टर जनरल पुनर्वास (डीजीआर) योजना बनाता है उसमें भी अच्छी योजनाएं अधिकारी वर्ग के लिए रखी गई हैं सैनिकों के लिए सब्जी और दूध की दुकानें ही हैं।

सोसाइटी के संयोजक सिंह कहते हैं कि जवान चाहें परमवीर चक्र विजेता हो या उसने अपना कोई अंग गंवाया हो अथवा उसे एशियाड या ओलंपिक में मैडल ही क्यों न मिला हो, वह कोको पैट्रोल पंप, सीएनजी आदि योजनाओं में पुनर्वास का लाभ पाने का अधिकारी नहीं है।

हालांकि सरकार ने सोसाइटी के ज्ञापन के जवाब में किसी भी तरह के भेदभाव से इन्कार करते हुए कहा है कि पुनर्वास योजना में उस क्षेत्र के अनुभव आदि को देखा जाता है। इसके अलावा 4 अक्टूबर 2012 को एक्स सर्विस मैन (पुर्न रोजगार) नियम में संशोधन करते हुए ग्रुप बी और सी में 10 फीसद और ग्रुप डी में 20 फीसद आरक्षण किया गया है और ये पद जेसीओ और जवानों के लिए ही हैं।

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