धारा 497 : सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पैदा हुए सवालों का कौन देगा जवाब
शास्त्री कोसलेंद्रदास। सुप्रीम कोर्ट ने व्याभिचार को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया है। इसे भारतीय दंड संहिता की 158 साल पुरानी धारा 497 के तहत अपराध माना जाता था, जिसकी वैधानिकता सुप्रीम कोर्ट ने रद कर दी है। इस फैसले के बाद ज्यादातर लोग जो व्याख्या कर रहे हैं, वह स्त्री-पुरुष के ‘नाजायज’ संबंधों पर टिकी है। कोर्ट के आदेश को महिला उत्थान की दिशा में बताने वाले इसे ऐतिहासिक फैसला मान रहे हैं। उनका दावा है कि इससे न केवल स्त्री की आजादी, बल्कि उसकी यौन स्वतंत्रता भी संरक्षित होगी। शरीर स्त्री की निजी संपत्ति है, इस नाते उसे किससे संबंध बनाना है, इस फैसले का अधिकार स्त्री का है। ये लोग स्त्री की यौन आजादी के अलावा उसके ‘पति-परमेश्वर’ की संपत्ति नहीं होने के कोर्ट के आदेश पर उत्सवनुमा माहौल तैयार कर रहे हैं।
कोर्ट के फैसले से उठे कई सवाल
कोर्ट के फैसले से कई सवाल पैदा होते हैं, जिनके जवाब जरूरी हैं। क्या पश्चिम की परंपराओं की फोटोकॉपी करने में हम लगातार इतने मशगूल हो रहे हैं कि हमने अनैतिक को सही साबित करना शुरू कर दिया है? भोग के उन्मत्त वातावरण में यौन जीवन कब तक पवित्र बना रह पाएगा? ऐसे में दुनिया के सबसे पुराने देश का सांस्कृतिक जीवन कैसे बचा रहेगा? व्याभिचार को वैध करने से नैतिक जीवन और उससे होने वाले राष्ट्र निर्माण का क्या होगा? इस यक्ष प्रश्न का जवाब दिए बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता।
पुरातन काल में धर्म और अधर्म की एक परिभाषा
पुरातन काल में धर्म और अधर्म की एक परिभाषा थी। जिसका मतलब है कि वेद आदि शास्त्र जिन कामों को करने का प्रतिपादन करते हैं, वह धर्म है। ठीक ऐसे ही वेद-पुराणों से विपरीत आचरण अधर्म है। इसे ऐसे समझा जा सकता है कि जिस काम को करने में डर है, संकोच है, हिचकिचाहट है, वह दुराचरण है। ऐसा दुराचरण किसी भी स्त्री या पुरुष के लिए सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं के आधार पर निषेध है। ये दुराचरण चोरी, झूठ, जुआ, रिश्वत, मद्यपान और व्याभिचार है।
भोग करने की छटपछाहट
मौजूदा घोर मौलिकतावादी युग में इच्छाशक्ति का उन्मत्त नर्तन हो रहा है। समाज की स्थिति और आकांक्षाएं करवट ले चुकी हैं। अधिक से अधिक भोग करने की छटपछाहट है। ऐसे में यूनान, मिस्र और रोम की संस्कृति के मिट जाने पर भी खुद के बचे रहने का दावा करने वाली भारतीय संस्कृति के ‘नामोनिशां’ यदि बचे हैं तो इसके पीछे एक सनातन रहस्य है। वह है सामाजिक व्यवस्था में ‘सेक्स’ की पवित्रता पर जोर। यौन संवेदनाओं पर धर्म, समाज और चरित्र का नियंत्रण। किसी राष्ट्र ने नारी के सतीत्व पर इतना जोर नहीं दिया, जितना हमारे पुरखों ने दिया। एक विदेशी विद्वान का कथन प्रसिद्ध है कि जिस समुदाय का यौन जीवन जितना पवित्र होगा, वह उतना ही दीर्घजीवी होगा।
कोई भी व्यवस्था नहीं होती पूर्ण
कोई भी व्यवस्था न तो पूर्ण होती है और न ही दोषपूर्ण प्रवृत्तियों से मुक्त। किसी भी स्थान विशेष में शुरू किए गए आरंभकालिक धर्म-सदाचार पूर्ण लाभदायी होते हैं। धीरे-धीरे दुरुपयोग और विकृतियां उन्हें घेर लेती हैं। अगर कुछ रूढ़ि है तो वह धर्म संचालित समाज ही तोड़ेगा। सनातन धर्म बहुत जीवंत व्यवस्था है। इसमें आई जड़ता से भी यह खुद बाहर निकलना जानता है, पर इसी जड़ता को तोड़ने के नाम पर कानून बनाना संविधान प्रदत्त धार्मिक आजादी में दखल है। बहुपत्नीवाद तथा बहुपतिवाद ऐसी ही कुपरंपराएं रही हैं जो समाज में लंबे कालखंड पसरी रहीं, पर हमारा जीवंत इतिहास व्याभिचार से दूर जाकर चरित्रवान बनने की प्रेरणा देता है। इसी से भारत नैतिक मूल्यों के उत्कर्ष का नेतृत्व करता रहा है। यदि ऐसा नहीं हो पाता है तो भारत में संयम-नियम की बात करना बेमानी होगा और इच्छाचारिता से भोग करना गौरव।
(लेखक राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर में सहायक आचार्य हैं)