बिहार

आमदनी अठन्‍नी खर्चा रुपैया, कुछ ऐसा ही हो गया है पृथ्‍वी और हमारा संबंध

अभिषेक कुमार सिंह। हाल में पता चला है कि पृथ्वी एक साल में जितने संसाधन पैदा करती है, इंसानी आबादी सात या आठ महीने में ही उनका उपभोग कर डालती है। साल दर साल उपभोग की यह रफ्तार बढ़ती जा रही है जिससे अनुमान है कि आने वाले 12 वर्षो में ही हमें अपनी आवश्यकताएं पूरी करने के लिए दो पृथ्वियों की दरकार होने लगेगी। संसाधनों की खपत में इतना तेज इजाफा हो गया है कि पृथ्वी उसकी उतनी ही गति से भरपाई करने में पिछड़ने लगी है। इससे यह विचारणीय स्थिति पैदा हो गई है कि यदि आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपया वाले हालात हों तो पृथ्वी पर जीवन आखिर कैसे बचेगा?1एक अंतरराष्ट्रीय रिसर्च संगठन ग्लोबल फुटप्रिंट नेटवर्क (जीएफएन) अपनी वार्षिक रिपोर्ट में बताता रहा है कि पानी, खनिज, लकड़ी आदि के संपूर्ण खात्मे की तारीख कितनी तेजी से नजदीक आ रही है। इस तारीख की गणना 70 के दशक में किए जाने की शुरुआत हुई थी, जिसमें अनुमान लगाया जाता है कि हर साल पृथ्वी खपत या क्षति के बाद इंसान के लिए जरूरी संसाधनों की कितनी भरपाई कर पाती है और कितने हिस्से की क्षतिपूर्ति करना उसके वश से बाहर होता जा रहा है।

ओवरशूट डे
अब से दो दशक पहले स्थिति यह थी कि इन संसाधनों का कोटा नौ महीने में यानी 30 सितंबर को खत्म हो जाता था। तब 30 सितंबर को ओवरशूट डे कहने की शुरुआत हुई। अगले 10 साल में इस ओवरशूट डे की तारीख खिसककर 15 अगस्त तक आ गई। यानी साढ़े आठ महीने में ही संसाधनों का खात्मा होने लगा। इसका यह अर्थ निकला कि साल के शेष बचे महीनों में पृथ्वी के जिन संसाधनों की खपत होगी, वह असल में पृथ्वी के भविष्य से लिया जाने वाला कर्ज है जिसकी अगर भरपाई नहीं की गई तो इस कर्ज के बोझ से पृथ्वी की जीवनदायी स्थितियां खत्म होती चली जाएंगी। पिछले साल यह ओवरशूट डे 3 अगस्त तक खिसककर आ गया था और इस साल यह अनुमानित तारीख पहली अगस्त है। मतलब साफ है कि अब पृथ्वी पर पैदा होने वाले संसाधनों को इंसान साल के पहले सात महीनों में ही खत्म कर डालता है, शेष 5 महीने वह संसाधनों का कर्ज लेता है।

संसाधनों की खपत
संसाधनों की खपत का सीधा रिश्ता देश-दुनिया के विकास की गति से जुड़ा है। जो देश जितनी तेजी से विकास करेगा, उस विकास के लिए पृथ्वी के खनिजों और अन्य जरूरी तत्वों का उपयोग करेगा, संसाधनों पर उतना ही ज्यादा बोझ पड़ेगा। इसके उलट जब विकास की रफ्तार थमेगी या धीमी पड़ेगी, संसाधनों की खपत घटने से पृथ्वी राहत महसूस करेगी। बीते कुछ दशकों में ऐसा एकाधिक बार हुआ भी है। जैसे वर्ष 2007-08 की अंतरराष्ट्रीय मंदी के दौर में ओवरशूट डे पांच दिन पीछे चला गया था, क्योंकि विकास की रफ्तार मंद पड़ने से खनिजों व अन्य संसाधनों की खपत में गिरावट दर्ज की गई थी। धीमे विकास से पृथ्वी को भले ही कुछ फायदा हो, लेकिन समस्या यह है कि आज दुनिया का कोई भी देश विकास की गति को नहीं रोकना चाहेगा।

नतीजे पूरी दुनिया के सामने
संसाधनों के तीव्र दोहन या कहें की चादर से ज्यादा पैर पसारने की आदत के नतीजे पूरी दुनिया के सामने हैं। जैसे-अब दुनिया में ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। साफ पीने लायक पानी की मात्र घट रही है। वनक्षेत्र सिकुड़ रहे हैं। नमी वाले क्षेत्रों (वेटलैंड्स) का खात्मा हो रहा है। संसाधनों के घोर अभाव के युग की आहट के साथ-साथ हजारों जीव और पादप प्रजातियों के सामने हमेशा के लिए विलुप्त होने का खतरा उत्पन्न हो गया है। कोई संदेह नहीं है कि इन सभी चेतावनियों के मूल में वह इंसान है जो हमेशा से प्रकृति का दुश्मन तो नहीं था, पर औद्योगिकीकरण के सुविधाभोगी इस आधुनिक युग में उसकी हरकतें पूरी पृथ्वी के लिए मुसीबत बन रही हैं। ऐसे खुलासे हालांकि पहले भी कई बार हुए हैं। जैसे वर्ष 2006 में ब्रिटिश अंटार्कटिक सर्वे के निदेशक क्रिस रैप्ले ने इस प्रवृत्ति को इकोलॉजिकल फुट प्रिंट की अवधारणा से जोड़ते हुए कहा था कि बढ़ती मानव आबादी के कारण ही हजारों जीव-प्रजातियों का अस्तित्व संकट में है। इसके साथ ही ऊर्जा की खपत बढ़ रही है।

जलवायु परिवर्तन की समस्या
खाद्यान्न की समस्या और विकराल हो रही है। पानी की कमी एक अवश्यंभावी घटना बन चुकी है। प्रदूषण घातक रूप ले चुका है और धरती को जलवायु परिवर्तन की समस्या से सतत जूझना पड़ रहा है। रैप्ले ने कोई नई अवधारणा नहीं दी थी। उनसे पहले संयुक्त राष्ट्र, विश्व बैंक और वल्र्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट के साझा समर्थन से 95 देशों के अलग-अलग क्षेत्रों के 1360 विशेषज्ञों ने 2.4 करोड़ डॉलर के भारी-भरकम खर्च से ‘मिलेनियम इकोसिस्टम एसेसमेंट (एमए)’ नामक रिपोर्ट तैयार की थी, उसमें भी यही बात कही गई थी। एमए प्रोजेक्ट के मुखिया और विश्व बैंक में चीफ साइंटिस्ट रॉबर्ट वाटसन ने उस वक्त कहा था कि यूं तो ‘हमारा भविष्य हमारे ही हाथ में है, पर दुर्भाग्य से हमारा बढ़ता लालच भावी पीढ़ियों के लिए कुछ भी छोड़कर नहीं जाने देगा।’

पिछले 50 वर्षो में इतनी बदल गई पृथ्वी
एमए रिपोर्ट में कहा गया था कि इंसान का यह दखल इतना ज्यादा है कि पृथ्वी पिछले 50 वर्षो में ही इतनी ज्यादा बदल गई है, जितनी कि मानव इतिहास के किसी काल में नहीं बदली। आधी शताब्दी में ही पृथ्वी के अंधाधुंध दोहन के कारण पारिस्थितिकी तंत्र का दो-तिहाई हिस्सा नष्ट हो गया है। जीवाश्म ईंधन के बढ़ते प्रयोग और जनसंख्या-वृद्धि की तेज रफ्तार धरती के सीमित संसाधनों पर दबाव डाल रही है। इस वजह से खाद्यान्न के साथ-साथ पानी, लकड़ी, खनिजों आदि का भी संकट दिनोंदिन गहरा रहा है। आज जिस पेट्रोल-डीजल के भंडार पर मानव प्रजाति अपनी सफलता की मीनारें खड़ी कर इतरा रही है, दोहन की गति ऐसी ही रहने पर यह इमारत ढहने में समय नहीं लगेगा, क्योंकि तेल के सभी स्नोत तब सूख चुके होंगे। संसाधनों पर बोझ बढ़ने और उनके खात्मे की आशंका के तीन प्रमुख कारण हैं-एक, बढ़ती आबादी के उपभोग के मद्देनजर उनका तेज दोहन। दो, इंसान द्वारा संसाधनों की कमी की पूर्ति का कोई उपाय नहीं करना।

इकोलॉजिकल फुटप्रिंट
जैसे काटे गए जंगलों के स्थान पर नए वृक्ष नहीं लगाना और तीन, प्रकृति को भी संसाधनों की भरपाई का समय नहीं देना। कुल मिलाकर मामला पृथ्वी पर इंसान के ‘इकोलॉजिकल फुटप्रिंट’ का है जो समय के साथ-साथ हर दिन पहले से बड़ा होता जा रहा है। असल में मनुष्य अपनी जरूरतों के लिए जिस तरह प्रकृति पर आश्रित होता है, उसे विज्ञान की भाषा में इकोलॉजिकल फुटप्रिंट कहा जाता है। अमेरिका की नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज (पीएनएएस) की भाषा में यह ह्युमैनिटी फुटप्रिंट है। पीएनएएस के मुताबिक इस इकोलॉजिकल ओवरशूट का आकलन (जो 1961 के बाद से हर साल किया जाता रहा है) चार प्रमुख आधारों पर किया जाता है-सभी मुख्य संसाधनों के खर्च का ब्यौरा रखना और मानव द्वारा उत्पादित कचरे का मापन। जरूरी जैविक उत्पादकता की रफ्तार को बनाए रखने में खर्च होने वाले संसाधनों के अनुपात का मापन।

धरती पर जैविक उत्पादकता
पृथ्वी को ‘ग्लोबल हेक्टेयर’ के टर्म में मापकर प्रति हेक्टयेर उत्पादकता का प्रति वर्ष आकलन और प्रति वर्ष इकोलॉजिकल सप्लाई यानी पूर्ति की प्राकृतिक गति का आकलन। यह आकलन कहता है कि भोजन, पानी तथा अन्य प्राकृतिक संसाधनों के हिसाब से धरती पर जैविक उत्पादकता के लिए कुल 11.3 अरब हेक्टेयर जमीन और समुद्र उपलब्ध हैं और ये समूची पृथ्वी का एक चौथाई हिस्सा हैं। मौजूदा आबादी में इस उत्पादक हिस्से का बराबर-बराबर बंटवारा किया जाए तो हरेक के हिस्से में 1.6 हेक्टेयर जगह आती है। आज की तारीख में पृथ्वी के संसाधनों पर प्रति व्यक्ति औसत फुटप्रिंट 2.2 हेक्टेयर क्षेत्रफल घेर रहा है। यानी हमारी जरूरतें इको सिस्टम पर जरूरत से ज्यादा बोझ डाल रही हैं। इकोलॉजिकल फुटप्रिंट में यह बढ़ोतरी 1961 से 2001 के बीच हुई है और यह पहले के मुकाबले 160 प्रतिशत बढ़ गया है।

संसाधनों के खर्च की तस्वीर साफ
अलग-अलग हिस्सों में बांटने से संसाधनों के खर्च की तस्वीर और साफ होती है। जैसे 1961-2001 के बीच 40 साल के अंतराल में ही इंसानों के भोजन, फाइबर और लकड़ी की जरूरतों में 42 प्रतिशत का इजाफा हुआ। इस कारण 1970 से 2001 के बीच समुद्री जीव-जंतुओं की प्रजातियों में 30 फीसद और ताजे पानी की जीव प्रजातियों में 50 फीसद की गिरावट हुई। जहां तक प्रदूषण और जीवाश्म ईंधन के उपभोग का सवाल है तो 40 साल की अवधि में तेल फूंकने में हमने 700 प्रतिशत की तरक्की की है। जाहिर है, प्रदूषण की रफ्तार भी कुछ ऐसी ही है। अमेरिकन एसोसिएशन फॉर द एडवांस्डमेंट ऑफ साइंस (एएएएस) अरसे से रिमोट सेंसिंग उपग्रहों से हासिल तस्वीरों की बदौलत इकोलॉजिकल एटलस तैयार करती रही है। वर्ष 2001 में प्रकाशित इकोलॉजिकल एटलस ने साफ किया था कि मनुष्य ने ग्लोब की आधी जमीन कब्जा ली है। इस कारण दुनिया से 484 जीव प्रजातियां और 564 पादप प्रजातियां वर्ष 1600 के बाद से अब तक गायब हो चुकी हैं।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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