दक्षिण कोरिया से संबंधों को और मजबूत करके चीन को भी मात दे सकता है भारत

(सुशील कुमार सिंह)। दक्षिण कोरिया से भारत के रिश्ते सीमित और सधे हुए तो हमेशा से रहे हैं, परंतु अब इसका व्यापक रूप देखने को मिल सकता है। दोनों देशों के बीच दूतावासी संबंधों की स्थापना साल 1962 में हुई, जबकि राजनयिक संबंध 1973 से देखे जा सकते हैं। राजनीतिक, आर्थिक, सामरिक तथा आपसी हितों के मुद्दे पर विचार विमर्श करने के लिए दोनों देशों में संयुक्त आयोग भी गठित किए जा चुके हैं। साल 2004 में दक्षिण कोरिया के तत्कालीन राष्ट्रपति रोह मू ह्युन भारत की यात्रा कर चुके हैं, जबकि 2006 में तत्कालीन भारतीय राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की दक्षिण कोरिया की यात्रा के चलते संबंधों को बेहतर बनाने का मार्ग प्रशस्त हुआ।
90 के दशक में आई तेजी
हालांकि दोनों देशों के बीच व्यापार संवर्धन तथा आर्थिक एवं तकनीकी सहयोग पर समझौते 1974 में हुए, मगर संबंधों में तेजी 90 के दशक में भारत में उदारीकरण के बाद आई। उस दौरान द्विपक्षीय व्यापार केवल 53 करोड़ डॉलर था। पिछले साल यह आंकड़ा 20 अरब डॉलर को भी पार कर गया और अब दोनों देशों ने इसे 50 अरब डॉलर तक पहुंचाने का लक्ष्य निर्धारित कर दिया है। कोरियाई ब्रांड आज भारत के घर-घर में उपलब्ध हैं और कोरिया की कंपनियां कहीं न कहीं मोदी सरकार के डिजिटल इंडिया और मेक इन इंडिया में योगदान दे रही हैं। भारत के लिए यह संबंध पूरब की ओर देखो की अवधारणा को भी पूरा करती है। मोदी के ‘एक्ट ईस्ट’ और मून की नई ‘दक्षिण नीति’ को इससे मजबूती मिलेगी। इसमें कोई दुविधा नहीं भारत को तेज विकास की आवश्यकता है और इसमें दक्षिण कोरिया एक महत्व का देश तो है। हालांकि इसी तरह का महत्व जापान का भी है। दक्षिण कोरिया के पास उन्नत तकनीक और विशेषज्ञों के साथ पूंजी की मौजूदगी है, जबकि भारत के पास बहुत बड़ा बाजार और व्यापक पैमाने पर कच्चा माल है।
निर्याता का आकार बढ़ा
देखा जाय तो पिछले कुछ वर्षों में दक्षिण कोरिया में भारतीय निर्यात का आकार बढ़ा है और भारत में उसका निवेश भी बढ़ा है। दोनों देश के बीच संबंधों में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर ओडिशा के पाराद्वीप में स्थापित किया जाने वाला इस्पात संयंत्र है। मोदी से पहले पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी दक्षिण कोरिया से व्यापारिक और आर्थिक साझेदारी पर समझौते कर चुके हैं। इतना ही नहीं भारत की तरह दक्षिण कोरिया भी अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद तथा व्यापक नरसंहार के हथियारों की तस्करी के संबंध में समान दृष्टिकोण रखता है। फिलहाल भारत और दक्षिण कोरिया के बीच एक मजबूत पहल इन दिनों हो चुकी है। दक्षिण कोरिया से प्रगाढ़ता का सीधा अर्थ है कि तकनीकी रूप से भारत उससे फायदा लेगा और वह उसे निवेश के लिए बाजार देगा। इससे चीन को थोड़ा हतोत्साहित करने में भी मदद मिल सकती है।
चीनी उत्पाद से पीछा छुड़ाना होगा मुमकिन
कनीकी मजबूती से भारत में बने उत्पाद यदि सस्ते होते हैं तो चीनी उत्पादों को जो भारत में जड़ जमा चुके हैं उससे पीछा छुड़ाना आसान होगा, मुख्यत: इलेक्ट्रॉनिक्स के क्षेत्र में। गौरतलब है कि भारत और चीन के बीच 70 अरब डॉलर का व्यापार होता है जिसमें एकतरफा फायदा चीन को ही होता है। मेक इन इंडिया और डिजिटल इंडिया को दक्षिण कोरिया के चलते फायदा होगा और दूसरे देशों को भी इससे प्रोत्साहन मिल सकता है। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री मोदी और दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति मून की पहली मुलाकात हैंपबर्ग में संपन्न जी-20 सम्मेलन में हुई थी और उसी समय उन्हें भारत आने का निमंत्रण मिला था। सबके बावजूद निहित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि भारत के साथ उसके संबंधों में मजबूती 1997 के पूर्वी एशियाई द्वितीय संकट के बाद दक्षिण कोरिया में हुए अभूतपूर्व विकास की वजह से पिछले दो दशकों के दौरान आई है, परंतु रफ्तार धीमी रही है। आशा भरी दृष्टि यह है कि आने वाले दिनों में दोनों देशों के संबंध बड़े रूप में उभरेंगे जिसका परस्पर लाभ दोनों को मिलेगा।
( लेखक वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन में निदेशक हैं)