अपना प्रदूषण भी हमें बेचने में कामयाब हो रहे विकसित देश और हम हो रहे खुश!
नवंबर 2015 में हुए पेरिस सम्मेलन में जिस क्लाइमेट चेंज को लेकर चिंता व्यक्त की गई थी और समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे, उसपर आज तक भी कुछ खास काम नहीं हो सका है। इस समझौते के तहत धरती का तापमान दो फीसद तक कम करने और इसके लिए सभी देशों से कदम उठाने पर सहमति बनी थी। हालांकि इस समझौते के बाद अमेरिका ने इससे बाहर होने का ऐलान कर दिया था। उसका कहना था कि इस समझौते से उसको नुकसान होगा और भारत समेत दूसरे विकासशील देशों को फायदा होगा। अमेरिका का एक तर्क यह भी था कि क्योंकि वह इसके लिए सबसे अधिक राशि वहन कर रहा है लिहाजा उन्हें नुकसान नहीं होना चाहिए था। अब इस समझौते को लगभग तीन वर्ष पूरे हो रहे हैं। लेकिन हालात जस के तस हैं। अब ग्लोबल एफिशिएंशी इंटेलीजेंस नामक शोध संस्था के अनुसार यूरोप और अमेरिका स्टील, सीमेंट जैसे प्रदूषणकारी उत्पादों को भारत और चीन से आयात कर रहे हैं और इस तरह अपने यहां कार्बन उत्सर्जन में कमी ला रहे हैं और दूसरे देशों में प्रदूषण बढ़ा रहे हैं।
विकसित देशों का तरीका
बहरहाल अब कार्बन उत्सर्जित देशों में शुमार अमेरिका समेत यूरोपीय देशों ने अब इससे बचाव का बेहतरीन तरीका अपना लिया है। यह तरीका इन देशों के लिए थोड़ा सा महंगा जरूर हो सकता है लेकिन भविष्य में यह इनके लिए जरूर फायदे का सौदा होगा। इसके लिए विकसित देशों ने ऐसी चीजों के उत्पादन से हाथ खींच लिए हैं जिनकी वजह से कार्बन उत्सर्जन बड़े पैमाने पर होता है। इसमें सीमेंट के उत्पादन से लेकर स्टील उत्पादन तक कई चीजें शामिल हैं।
इंपोर्ट करना ज्यादा बेहतर
दरअसल, ये सब देश इन सभी चीजों को अपने यहां पर बनाने से ज्यादा दूसरे देशों से इंपोर्ट कर रहा है। इसको यदि सीधी भाषा में कहा और समझा जाए तो अमेरिका में अब इन चीजों का उत्पादन कम हो या नहीं होगा। इसकी पूर्ति अब वह बाहर से इनको खरीद कर करेगा। इसको हम इस तरह से भी देख सकते हैं कि अमेरिकी कंपनियां दूसरे देशों जिसमें भारत और चीन शामिल है, में अपना प्लांट लगाएंगी और वहां पर सस्ते श्रम का पूरा फायदा उठाते हुए अपने लिए उत्पादन करेंगी। ऐसा करने पर वह प्रदूषण से भी बची रहेंगी।
यह होगा सबसे बड़ा फायदा
इससे उसको सबसे बड़ा फायदा यही होगा कि इनकी वजह से जो कार्बन उत्सर्जन होता वह अब नहीं होगा। दूसरी तरफ अमेरिकी कंपनियां इनका उत्पादन दूसरे देशों में करेंगी। इससे उन देशों में रोजगार तो जरूर पैदा होगा लेकिन साथ ही वह पर्यावरण के खतरे के चरम पर पहुंच जाएंगे। इसका खामियाजा उन देशों को हर स्तर पर भुगतना होगा। आपको यहां पर ये भी बता दें कि दुनिया भर की फैक्ट्रियां कार्बन उत्सर्जन में करीब 22 फीसद का योगदान देती हैं। आपको बता दें कि सितंबर 2001 में जब वर्ल्ड ट्रेड टावर पर हुए आतंकी हमले के बाद इसका मलबा पूरी दुनिया में भेजा गया था। यह भारत भी भेजा गया था।
कार्बन उत्सर्जन में सीमेंट फैक्ट्रियों का योगदान
आपको बता दें कि सीमेंट फैक्ट्रियों दुनियाभर में उत्सर्जित कार्बन का करीब पांच फीसद अकेले ही उत्सर्जन करती हैं। सीमेंट की लगातार बढ़ रही मांग और उत्पादन की वजह से कार्बन उत्सर्जन में भी लगातार वृद्धि आ रही है। इसमें भारत समेत मध्य एशिया और अफ्रीका का नाम इसमें शामिल है। यहां पर आपको बता दें कि मिस्र, ईरान, पाकिस्तान और सऊदी अरब दुनिया के उन 15 देशों में शुमार हैं जहां पर सीमेंट का अधिक उत्पादन होता है। इस तरह से कार्बन उत्सर्जन में भारत का योगदान सबसे अधिक है।
2017 की रिपोर्ट
इस बात की तस्दीक वर्ष 2017 के अंत में सामने आई एक रिपोर्ट भी करती है। इस रिपोर्ट में के मुताबिक वैश्विक उत्सर्जन में वृद्धि का एक कारण अन्य अर्थव्यवस्थाओं की तेजी भी है। इसमें कहा गया है कि विकासशील देशों की जी़डीपी में वृद्धि हो रही है और ये देश अधिक वस्तुओं का उत्पादन कर रहे हैं, जिसके चलते भी उत्सर्जन बढ़ रहा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि चीन 28 फीसदी उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है और पिछले साल की तुलना में इसमें 3.5 फीसदी की वृद्धि हुई है। वहीं भारत के कार्बन उत्सर्जन में भी 2 फीसदी की वृद्धि हुई है। आपको यहां पर ये भी बता दें कि कुल 41 अरब मेट्रिक टन कार्बन डाय ऑक्साइड उत्सर्जन में से 37 अरब के उत्सर्जन के लिए जीवाश्म ईंधन और उद्योग जगत जिम्मेदार हैं।
ग्रीन हाउस गैस
कार्बन डाय ऑक्साइड अव्वल दर्जे की ग्रीनहाउस गैस है। कोयला, तेल और गैस को जलाने से 65 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैस पैदा होती है। जंगल काटने से 11 प्रतिशत कार्बन गैस बनती है। पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली 16 फीसद मीथेन और 6 फीसद नाइट्रस ऑक्साइड औद्योगिक कृषि से पैदा होती है।