देश के विकास में सबसे बड़ी रुकावट दूर करने में सरकारों को छूट गए पसीने, क्यों
सुनीता मिश्र। देश में हर साल एक से सात सितंबर तक राष्ट्रीय सुपोषण सप्ताह मनाया जाता है। इसका उद्देश्य लोगों को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक करना होता है। इसके लिए प्रशिक्षण, पोषण युक्त भोजन बनाना, गृह-विज्ञान के छात्रों द्वारा प्रदर्शनी लगाना, विभिन्न प्रतियोगिताओं के अलावा सेमिनार आदि का आयोजन किया जाता है। चूंकि परिवार को पोषित करने का काम हमारे देश में माताओं के जिम्मे होता है, इसलिए सभी कार्यक्रम उन्हीं को जागरूक बनाने के लिए आयोजित किए जाते हैं।
आठ सितंबर, 2010 को लोगों में पोषण संबंधी जागरुकता फैलाने के लिए खाद्य विज्ञान विभाग तथा पोषण प्रबंधन ने एक दिवसीय उत्सव का आयोजन किया था। इसके अंतर्गत पोस्टर प्रतियोगिता, स्वस्थ भोजन पकाने की प्रतियोगिता, संतुलित आहार के बारे में समझाना, बीमारियों के बारे में जानकारी देना, हृदय की सुरक्षा आदि पर परिचर्चा जैसे तमाम कार्यक्रम हुए थे। उल्लेखनीय है कि इस सप्ताह के तहत नवजात शिशु को छह महीनों तक मां का दूध पिलाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
राष्ट्रीय सुपोषण सप्ताह की विषय-वस्तु भी हर साल अलग-अलग होती है। वर्ष 2017 में आयोजित इस सप्ताह का विषय था- उत्कृष्ट शिशु एवं बाल आहार पद्धति अर्थात बेहतर बाल स्वास्थ्य, जबकि 2011 का विषय था- शुरू से ही अच्छा भोजन। वर्ष 2012 का विषय था- पोषण जागरुकता : स्वस्थ राष्ट्र का समाधान। इसी तरह 2014 का विषय था- पोषक आहार देश का आधार, जबकि 2015 का विषय था- बेहतर पोषण : विकास के लिए महत्वपूर्ण और 2016 का विषय था- मेरा भोजन तथा टेक होम राशन।
विषयों के शीर्षक भले ही बदलते रहे लेकिन उनके केंद्र में रहता पोषण ही है। देश में पहली बार राष्ट्रीय सळ्पोषण सप्ताह वर्ष 1982 में आयोजित किया गया था। दरअसल, कुपोषण राष्ट्रीय विकास में सबसे बड़ी बाधा है। केंद्र और राज्य सरकारों के अलावा तमाम स्वयंसेवी संस्थाएं भी कुपोषण के खिलाफ अभियान चला रही हैं, लेकिन इससे निजात अभी तक नहीं मिली है। एक आकलन के अनुसार, देश की 14 फीसद आबादी दो जून की रोटी के संकट से जूझ रही है। बहुत सारे लोगों को महज एक समय का भोजन ही मिल पाता है। लाखों लोग ऐसे हैं देश में जिन्हें रात में खाली पेट सोना पड़ता है।
समय-समय पर देश-दुनिया की तमाम संस्थाएं कुपोषण को लेकर हमारी सरकार को आगाह करती रहती हैं और ऐसा हो भी क्यों न। देश में जन्म लेने वाले 42 फीसद बच्चे अपने जन्म के समय अंडरवेट होते हैं। इनमें से 13 फीसद बच्चे एक साल की उम्र पूरी करते-करते काल के गाल में समा जाते हैं, जबकि बचे हुए बच्चों में से पांच फीसद दो साल की आयु पूरी नहीं कर पाते। पांच वर्ष की उम्र होते-होते करीब 19 फीसद बच्चे जीवित नहीं रह पाते हैं। वैसे सैद्धांतिक तौर पर तो इन बच्चों की मौत किसी न किसी बीमारी की वजह से होती है लेकिन उन्हें जो बीमारियां घेरती हैं, वह कुपोषण के कारण होती हैं।
बहुत सारी बीमारियां ऐसी भी होती हैं जिनका कारण भले ही कुछ और हो लेकिन वे बच्चों को घेरती तभी हैं, जब उनके शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है। जैसे मलेरिया एक मच्छरजन्य बीमारी है, किंतु यदि बच्चे की रोग प्रतिरोधक क्षमता मजबूत है, तो वह उसकी जान के लिए खतरा नहीं बन सकती है। जागरुकता के क्रम में कहा जाता है कि मां को अपने बच्चे को अपना दूध पिलाना चाहिए। मां का शरीर कोई मशीन नहीं है कि उसमें अपने आप दूध बनने लगे। इसकी भी पहली शर्त यही है कि गर्भावस्था के दौरान या मां बनने के बाद यदि महिला को पौष्टिक भोजन नहीं मिलेगा तो दूध बनना मुश्किल है।
पारंपरिक भारतीय परिवारों में आम तौर पर महिला पहले अपने परिवार के पुरुष सदस्यों को भोजन कराती है, फिर बच्चों को और अंत में जो भी बचता है, उसे स्वयं खाती है। उन परिवारों की स्थिति और भी खराब होती है, जहां भोजन की कमी होती है। अगर बेहद गरीब परिवार में किसी पुरुष को एक दिन तक भूखा रहना पड़ता है, तो महिला को इससे कहीं ज्यादा। इन महिलाओं को अगर यह ज्ञान दिया जाए कि अपने बच्चों को उन्हें अपना दूध पिलाना चाहिए, तो इस ज्ञान पर वे अमल कैसे कर पाएंगी? जिस देश में भूख से होने वाली मौत की खबरें आए दिन आती रहती हों, वहां सभी नागरिकों को पर्याप्त पोषण मिलने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
इसका दूसरा पक्ष यह है कि हमारे ही देश में उच्च एवं मध्यम वर्ग की पार्टियों, जलसों, समारोहों आदि में इतना भोजन बचता है कि अगर उसे एकत्रित करके गरीबों में वितरित करने के लिए कोई तंत्र विकसित कर दिया जाए, तो इससे उन लोगों का पेट भरा जा सकता है जो रोज खाली पेट सोने को मजबूर होते हैं। हालांकि, देश के कुछ महानगरों में कई स्वयंसेवी संस्थाएं हैं जो पार्टियों, समारोहों का बचा हुआ भोजन एकत्रित करके उसे गरीबों में बांटने का काम करती हैं लेकिन यह पहल जिस व्यापक स्तर पर होनी चाहिए, अभी उस तरह हो नहीं पा रही है।
फिर कायदे की बात तो यह है कि हमारे गरीब बचे हुए भोजन पर निर्भर क्यों रहें? उन्हें इतना सक्षम बनाने की कोशिश क्यों नहीं की जाती है कि वे अपने लिए खाद्य सामग्री खरीद सकें और स्वाभिमान के साथ अपना जीवन जी सकें? इसमें कोई संदेह नहीं है कि बहुत से राज्यों में गरीबों को बहुत सस्ता अनाज मुहैया कराया जाता है। तमिलनाडु में स्वर्गीय जयललिता ने शहरों में अम्मा कैंटीन जैसी अनुकरणीय पहल की थी, जिसकी नकल कळ्छ और राज्यों ने भी की। लेकिन ये राज्य तमिलनाडु जैसी व्यवस्था नहीं कर पाए। यहां सस्ता भोजन मुहैया कराने की योजनाओं में उसी तरह भ्रष्टाचार का घुन लग गया है, जिस तरह सस्ता खाद्यान्न उपलब्ध कराने की योजनाओं को लगा हुआ था।
कुल मिलाकर कुपोषण और भूख की समस्या की जड़ें बहुत गहरी हैं। इसके निदान के लिए ठोस प्रयास करने की जरूरत है। राष्ट्रीय सळ्पोषण सप्ताह जैसे कार्यक्रम तो सरकारी आयोजन हैं, जिनमें कुछ लोगों को प्रतियोगिताओं में भागीदारी करने का मौका मिल जाता है, तो कुछ खाये-अघाये लोगों को भाषण देने का। इससे गरीबों के पेट में निवाला पहुंचने की कोई गारंटी नहीं है।