समर्थन मूल्य और किसानों की दुविधा
बुधवार को घोषित खरीफ की फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य सरकार का एक बड़ा दांव है। इस घोषणा में चार-पांच महत्वपूर्ण बातें छिपी हैं, जिसका विश्लेषण जरूरी है। पहली तो यह कि सत्तारूढ़ दल ने 2014 के चुनावी घोषणापत्र में यह लिखित वचन दिया था कि वह स्वामीनाथन आयोग की उस सिफारिश को सत्ता में आते ही लागू करेगी, जिसमें किसानों को सी-2 लागत (फसल की हर मद को जोड़ते हुए कुलजमा लागत) के ऊपर 50 प्रतिशत जोड़कर न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की बात
कही गई थी।
दूसरी बात, 2015 में जब इस संदर्भ में एक जनहित याचिका सर्वोच्च न्यायालय में डाली गई, तब अपने जवाब में केंद्र सरकार ने एक शपथ पत्र दाखिल किया कि यह व्यावहारिक नहीं है और वर्तमान संसाधनों में संभव भी नहीं है। इसके दो अर्थ निकाले जा सकते हैं- एक, चुनावी वादा एक अलग चीज थी, दूसरा, इसे लागू करने की इच्छा के बावजूद उपलब्ध संसाधनों में इसे पूरा करना संभव नहीं था। इसलिए पूरे मामले ने यह मोड़ ले लिया कि पिछली सरकारों ने ऐसा नहीं किया। बार-बार यह कहा जाता रहा कि स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट काफी पहले आ गई थी, लेकिन उनकी सिफारिशों पर बिल्कुल अमल नहीं किया गया। मगर सच है कि बाद में भी यह नहीं किया जा सका। अभी तक इस मामले में ज्यादा नहीं हो सका, तो अगले बजट में भी कुछ नहीं किया जा सकेगा, क्योंकि वह आचार संहिता से पहले का बजट होगा। हां, इस बार बजट में स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने की बात कही जरूर गई, लेकिन उस वक्त अमल नहीं किया गया। कहा गया कि आगामी खरीफ से इस पर अमल होगा। इसलिए इस मौके पर उम्मीद बनना स्वाभाविक ही था।
पहले आमतौर पर सी-2 लागत के ऊपर 10-12 प्रतिशत जोड़कर न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा होती थी। उसके मुकाबले सत्तारूढ़ दल ने 50 प्रतिशत की बात की, जिसकी चर्चा स्वामीनाथन आयोग में भी की गई है। मगर इन वर्षों में एक और चीज यह हुई है कि सी-2 लागत की परिभाषा ही बदल दी गई है। उसका नया बेंचमार्क नीचे कर दिया गया है।
पिछले चार वर्षों में जितने समर्थन मूल्य घोषित किए गए हैं, उनमें केवल दो जिंसों यानी धान और गेहूं को छोड़कर सभी फसलों के बाजार मूल्य सभी आठों मौसम में समर्थन मूल्य के नीचे रहे हैं। जबकि समर्थन मूल्य की प्रतिबद्धता या आधार यह है कि यदि बाजार में समर्थन मूल्य के नीचे किसी जिंस की कीमत जाती है, तो सरकार किसी कीमत पर उस दाम को नीचे नहीं गिरने देगी और तय कीमत पर किसानों से खरीदेगी। कृषि लागत और मूल्य आयोग की रिपोर्ट में एक वाक्य सब बार-बार दोहराते हैं कि आशा की जाती है कि किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य से ऊंचा मूल्य प्राय: मिलता रहेगा। यदि ऐसी स्थिति आती है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे बाजार के भाव जाते हैं, तो सरकार उसकी खरीद के जरिए उतना भाव तो सुनिश्चत कराएगी ही। मगर इन चार वर्षों में यह भी नहीं मिला। यानी एक तो लागत का स्तर बदला गया, चार साल तक वादा पूरा नहीं किया गया, घोषित समर्थन मूल्य नहीं मिले, फिर अब किस आधार पर यह विश्वास किया जाए कि जो घोषणा की गई है, वह मूल्य किसानों को मिल जाएगा?
न्यूनतम समर्थन मूल्य किसानों के हित में काम करता है। दरअसल, खेती की एक विशेष परिस्थिति है। उसका एक अलग स्वभाव है। सरकारी या निजी क्षेत्र में काम करने वाले तमाम श्रमिकों व कुशल कार्यकर्ताओं को एक निश्चित रकम तय अवधि में मिलती रहती है। यानी उसकी आय का स्रोत लगातार प्रवाहित होता रहता है। मगर किसानों के नगदी-प्रवाह में दिक्कत है। जिस दिन से वह खेत जोतकर बुआई की तैयारी करता है, तब से लेकर जब तक फसल नहीं आ जाती, उसके दोतरफा व्यय चलते रहते हैं। यानी खेती पर भी खर्च होता है और घर-परिवार पर भी, जबकि उसको आय छह महीने के बाद होती है। इन तमाम खर्चों और आय की प्रतीक्षा में किसानों की सहनशीलता जवाब देने लगती है। इसलिए बाजार में जो भी मूल्य मिलता है, उस पर वह अपनी फसल बेचने को तैयार हो जाता है। यह विवशता की बिक्री है। उसकी इस परिस्थिति का लाभ ही जमाखोर उठाते हैं और फिर उपभोक्ताओं को कई-कई गुना अधिक कीमत पर बेचते हैं। इस जाल को तोड़ने के लिए ही एमएसपी ईजाद की गई थी। 1965 में यह दो जिसों पर लागू होने के साथ शुरू हुआ, मगर अब जिंसों की संख्या बढ़कर 20 से अधिक हो चुकी है।
जाहिर है, आदर्श स्थिति यही है कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से 20-25 प्रतिशत ऊपर दाम मिले। इसके लिए किसानों की मांग और बाजार में इस प्रकार के सुधार की अपेक्षा रहती है कि किसानों को वहां स्वत: यह दाम मिल जाए। न सरकार को फसल खरीदनी पड़े, न भंडारण करना पड़े, न कोई भ्रष्टाचार हो और न किसानों को कठिनाई हो। मगर मुश्किल यह है कि उदारीकरण और वैश्वीकरण के तमाम सुधारों के बाद भी किसानों के बाजार के ऊपर उसी तरह के प्रतिबंध आयद हैं। वे एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र अनाज नहीं ले जा सकते, तय मात्रा से अधिक जमा नहीं कर सकते, और तो और, निर्यात भी नहीं कर सकते। अभी भी सरकारी मंडियों में एकाधिकार के कारण किसानों का जमकर शोषण होता है।
स्पष्ट है, एमएसपी की व्यवस्था तो रहे, लेकिन बाजार की परिस्थिति भी ऐसी बने कि किसान को स्वत: जिंसों के मूल्य ज्यादा मिलें। और अगर उससे कम होता है, तो एमएसपी की मजबूत प्रणाली उसे थाम ले। (ये लेखक के अपने विचार हैं)