BJP के खिलाफ विपक्षी एकजुटता का उत्साह धुंधला, राहुल गांधी के सामने बड़ी चुनौती
प्रणब ढल सामंत, नई दिल्ली । बीजेपी के खिलाफ विपक्षी एकजुटता का उत्साह कुछ धुंधलाता दिख रहा है। ऐसा लग रहा है कि इस पर दुविधा पैदा हो गई है या नए सिरे से आकलन किया जा रहा है। इसकी वजह क्या है? इस सवाल के जवाब में यही बात सामने आ रही है कि ऐसा कांग्रेस और इसके अध्यक्ष राहुल गांधी
की डावांडोल स्थिति के कारण हो रहा है।
ममता बनर्जी, लालू प्रसाद यादव, शरद यादव से लेकर अखिलेश यादव और एमके स्टालिन तक सभी क्षेत्रीय नेताओं के सामने यह चुनौती बरकरार है कि मोदी सरकार को बाहर करने के लिए पर्याप्त संख्या तब तक नहीं मिलेगा, जब तक कि कांग्रेस उन सीटों पर अपना प्रदर्शन नाटकीय रूप से बेहतर न कर ले, जहां उसका मुकाबला सीधे बीजेपी से है। यही वजह है कि मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में होने वाले चुनावों की अहमियत बीजेपी से ज्यादा कांग्रेस के लिए बढ़ गई है। इन चुनावों का नतीजा 2019 की सियासी जंग से पहले विपक्षी खेमे का माहौल तय कर देगा।
यह न भूलें कि पीएम के गृह राज्य गुजरात में कांग्रेस ने पिछले साल अपना प्रदर्शन सुधारा था। वहां पार्टी ने बीजेपी से 16 सीटें छीनकर अपने विधायकों की संख्या 77 कर ली थी। इससे विपक्षी खेमे में उत्साह बढ़ा था। यही वजह थी कि कर्नाटक चुनाव को कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी की पहली परीक्षा के रूप में देखा गया था। नतीजा बढ़िया तो नहीं था, लेकिन नंबर गेम में जेडीएस के साथ मिलकर कांग्रेस ने बीजेपी को पस्त कर दिया। कांग्रेस की हार तब भी ‘ऐंटी-बीजेपी अलायंस’ के लिए फायदेमंद थी और यह बात एचडी कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में दिखी थी।
आगामी विधानसभा चुनावों ने फोकस और दबाव कांग्रेस पर फिर बढ़ा दिया है। जरूरी नहीं है कि विधानसभा चुनाव में मतदान का रुझान
लोकसभा चुनाव
जैसा ही हो, लेकिन इससे कुछ तो अहम संकेत मिलते ही हैं।
2003 में बीजेपी ने मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव जीते थे। छह महीने बाद वह आम चुनाव हार गई, लेकिन इन राज्यों में उसका प्रदर्शन बेहतर रहा। उसने इनमें 65 लोकसभा सीटों में से 56 पर जीत दर्ज की थी। 2008 में राजस्थान ने कांग्रेस को चुना, जबकि बीजेपी के पास मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ रहे।
मई 2009 के संसदीय चुनाव में भी पिछला पैटर्न दिखा था। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की 40 लोकसभा सीटों में से 20 बीजेपी को मिलीं, लेकिन राजस्थान में उसका सूपड़ा साफ हो गया, जहां कांग्रेस ने 25 में से 20 लोकसभा सीटें जीती थीं। यही कहानी 2013 और 2014 में दोहराई गई, जब बीजेपी ने इन राज्यों में विधानसभा और लोकसभा चुनावों में जीत हासिल की। इस तरह आगामी विधानसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन गठबंधन पार्टनर के रूप में कांग्रेस का वजन बढ़ाएगा और नेशनल लेवल पर चैलेंजर की छवि बनाने में उसे मदद देगा।
हालांकि इस समय ग्लोबल टूर के अलावा आरएसएस पर वैचारिक हमले को लेकर राहुल का फोकस अलग दिख रहा है। इस तरह की ‘करो या मरो’ वाली स्थिति में कांग्रेस अध्यक्ष से देश में ज्यादा जोर लगाने की अपेक्षा थी, खासतौर से यह देखते हुए कि बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने कर्नाटक चुनाव के बाद देश के लगभग हर राज्य का दो बार दौरा कर लिया है।
हालांकि किसी न किसी तरह कांग्रेस ने अपने बारे में यह धारणा खत्म नहीं होने दी है कि वह 2004 वाला प्रदर्शन दोहरा सकती है। तब भी बीजेपी ने मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक की 119 लोकसभा सीटों में से 88 पर कांग्रेस को हराया था, लेकिन कांग्रेस 145 सीटों के साथ बीजेपी के 138 आंकड़े से आगे निकलकर सबसे बड़ी पार्टी बन गई थी।
बीजेपी ने सबक सीखा है। उसने पिछले कुछ वर्षों में नए राज्यों में मौजूदगी बढ़ाई है और उन राज्यों में सरकार बनाई है, जहां वह कभी भी सत्ता में नहीं रही थी। वहीं, कांग्रेस अब भी अविभाजित आंध्र प्रदेश के इलाके में कमजोर दिख रही है, जबकि उसी ने 2004 में असल फर्क पैदा किया था।
1999 में 114 सीटों के लेवल से कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाने में सोनिया गांधी ने जो मेहनत की थी, उससे कहीं ज्यादा श्रम राहुल को 44 सीटों वाली कांग्रेस को सत्ता तक ले जाने में करना होगा। राहुल को आगामी विधानसभा चुनावों के लिए जमीनी लड़ाई लड़नी ही होगी। अगर ऐसा नहीं हुआ तो बीजेपी का काम प्राइम टाइम की बहस से ही चल जाएगा।